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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

अध्याय - 9

हिन्दी के प्रमुख आलोचकों की आलोचनात्मक अवधारणायें,
पद्धतियाँ एवं प्रतिमानों तथा उनकी कृतियों का अध्ययन

प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।

उत्तर -

रामचन्द्र शुक्ल

हिन्दी आलोचना के भव्य भवन का शिलान्यास यद्यपि आचार्य शुक्ल से पूर्व ही हो चुका था, तथापि इस भवन को सुदृढ़ और गगनचुम्बी बनाने के लिए प्रयास शुक्ल जी ने ही किया। उन्हें हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में युगप्रवर्तक होने का गौरव प्राप्त है। उनसे पूर्व हिन्दी आलोचना एक छोटे से पौधे के रूप में थी, जिसे उन्होंने अपनी प्रतिभा, विद्वता और चिन्तन के जल, वायु और प्रकाश द्वारा विशाल वृक्ष के रूप में परिणत किया। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने लिखा है - "शुक्ल जी ने हिन्दी आलोचना में क्रांतिकारी परिवर्तन किया, वे नए युग के विधायक थे।" डॉ. रामेश्वर लाल खण्डेलवाल का मत है, "आचार्य शुक्ल को हिन्दी का सर्वप्रथम मौलिक और प्रौढ़ समालोचक होने का गौरव प्राप्त है, वे तात्विक व ऐतिहासिक दोनों प्रकार के महत्व से संपन्न हिन्दी के एक ऐसे दिग्गज आचार्य हैं, जिन्होंने शास्त्राभ्यास और भारतीय व पाश्चात्य समीक्षात्मक विचार- सरणियों को सुप्रतिष्ठित जीवन-मूल्यों के आलोक में गुम्फित किया है और समीक्षा को ऊँचा अर्थ व आशय प्रदान किया है।'

आचार्य शुक्ल के आलोचक स्वरूप को समझने के लिये हमें उनके निम्नलिखित ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है -

(1) हिन्दी साहित्य का इतिहास।
(2) चिन्तामणि भाग- 1 और 2।
(3) रस-मीमांसा।
(4) गोस्वामी तुलसीदास।
(5) भ्रमरगीत की भूमिका।
(6) जायसी ग्रन्थावली की भूमिका।
(7) बुद्ध चरित्र की भूमिका।

आचार्य शुक्ल जी की सैद्धांतिक आलोचना - आचार्य शुक्ल जी ने सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों प्रकार की आलोचनायें प्रस्तुत की हैं। उनकी सैद्धांतिक आलोचना का स्वरूप चिन्तामणि भाग - 2 के 'काव्य में रहस्यवाद' और 'काव्य में अभिव्यंजनावाद' शीर्षक लेखों में मिलता है। उनके 'रस-मीमांसा' नामक ग्रन्थ में भी इसका स्वरूप दिखाई देता है। उनकी सैद्धांतिक आलोचना की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

शुक्ल जी ने आलोचना का मानदण्ड भारतीय 'रसवाद' को माना है। उनकी मान्यता में तीन प्रमुख बातें अग्रलिखित हैं-

(i) नैतिकता, संयम, आदर्श पर विशेष बल 'शिवत्व' से अनुप्राणित होना।
(ii) प्राचीन आचार्यों का अनुकरण मात्र न होकर मौलिकता से युक्त होना।
(iii) आलोचना का पूर्ण उपयुक्त मानदण्ड स्वीकार करना।

(2) शुक्ल जी ने भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किये हैं। भाव को वे प्रत्यक्ष-बोध, अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति का संश्लिष्ट रूप मानते हैं। विभाव को वे काव्य में मुख्य ठहराते हैं और विभाव पक्ष के व्यापक चित्रण के लिये कल्पना का संबल ग्रहण करना उचित समझते हैं'। अनुभाव के अन्तर्गत वे केवल आश्रय की चेष्टाएँ लेते हैं, आलम्बन की चेष्टाओं को 'भाव' के अन्तर्गत रखते हैं। जिन भावों को किसी पात्र में प्रकट होता देखकर दर्शक या श्रोता भी उसके जैसा अनुभव कर सकते हैं, उन्हें शुक्ल जी ने प्रधान भाव माना है और शेष को संचारी भाव कहा है।

(3) रस- दशा का अभिप्राय शुक्ल जी ने हृदय की मुक्तावस्था से लिया है। व्यक्ति का लोक-सामान्य भाव-भूमि पर जा पहुँचना ही हृदय की मुक्तावस्था है। आचार्य शुक्ल ने भरतमुनि तथा पण्डित विश्वनाथ का रस-निष्पत्ति का सिद्धांत अपनाया है, किन्तु संस्कृत आचार्यों की रस के स्वरूप और काव्य के उद्देश्य सम्बन्धी धारणा उन्हें मान्य नहीं। वे काव्य का चरम लक्ष्य 'आनन्द' नहीं मानते। उनके अनुसार क्रोध, भय, जुगुप्सा और करुण भाव की अनुभूति आनन्दमय न होकर दुःखात्मक होती है। शुक्ल जी रस की अनुभूति को लौकिक मानते हैं और प्राचीन आचार्यों के रस को 'अलौकिक', 'ब्रह्मानन्द सहोदर आदि कहने को औपचारिक विशेषण मात्र मानते हैं।

(4) काव्य के सम्बन्ध में आचार्य शुक्ल की धारणा है कि कविता वह साधन है, जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मानव के रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और उसका निर्वाह होता है। जगत के कुछ पदार्थों को देखकर भी रसानुभूति होती है और कविता को पढ़ने से भी होती है। यह स्थिति तभी उत्पन्न होती है, जब कविता का आलम्बन व्यक्ति से अधिक से परिचित होता है। रस दशा पाठक की स्थिति तीन रूपों में व्यक्त होती है- (क) पाठक का हृदय मुक्तावस्था को प्राप्त हो जाता है। (ख) वह पराये के भेदभाव से ऊपर उठकर काव्य के भाव में ही तन्मय हो जाता है। (ग) किसी अन्य वस्तु व्यापार की उसे अनुभूति नहीं रहती है।

(5) साधारणीकरण के सम्बन्ध में शुक्ल जी का मत है, "जब तक किसी भाव का कोई विषय इस रूप में नहीं लाया जाता कि वह सामान्यतः सबके उसी भाव का आलम्बन हो तब तक उसमें रसोद्बोधन की पूर्ण शक्ति नहीं आती। इसी रूप में लाया जाना हमारे यहाँ साधारणीकरण आलम्बन का ही होता है।

(6) क्राचे के अभिव्यंजनावाद का शुकल जी ने तीव्र विरोध किया।

(7) प्रकृति चित्रण के सम्बन्ध में उनका विचार है कि प्राकृतिक दृश्य हमारे समक्ष आलम्बन रूप में भी उपस्थित होते हैं और उद्दीपन रूप में भी।

(8) जिन कवियों को लोक-हृदय की पहचान होती है और जो लोक-सामान्य आलम्बनों का सफल विधान करते हैं। उन्हें शुक्ल जी ने श्रेष्ठ कवि माना है, जो कवि केवल आलंकारिक चमत्कार अथवा कोरे उपदेश के लिए काव्य-रचना करते हैं उन्हें वे निकृष्ट कोटि का सिद्ध करते हैं।

(9) शुक्ल जी ने काव्य-भाषा की चार मुख्य विशेषताएँ मानी हैं-

(क) लाक्षणिकता,
(ख) रूप - व्यापार सूचक शब्दों का प्रयोग,
(ग) नाद, सैष्ठव तथा
(घ) रूप-गुण-बोधक शब्दों का प्रयोग |

(10) अलंकारों को वे कविता का साधन ही मानते हैं, साध्य नहीं।

(11) छन्द-विधान को वे वाद सौन्दर्य की प्रेषणीयता में सहायक मानते हैं। छन्दों की मात्राओं को घटाने-बढ़ाने से यदि नए संगीत की सृष्टि हो सके तो वे ऐसा करने की छूट देते हैं।

व्यावहारिक आलोचना आचार्य शुक्ल ने जिन सैद्धांतिक मान्यताओं का निरूपण किया, उन्हें वे व्यवहार में ही लाए। इसलिए उनकी सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना एकदम घुली मिली है। उनकी व्यवहारिक आलोचना का स्वरूप जायसी ग्रन्थावली की भूमिका, भ्रमरगीत सार की भूमिका तथा गोस्वामी तुलसीदास व हिन्दी साहित्य का इतिहास में प्राप्त होता है। उनकी समस्त व्यवहारिक आलोचनाओं को हम दो भागों में बाँट सकते हैं -

(क) कवियों पर लिखी हुई समीक्षाएँ,
(ख) काव्य धाराओं पर लिखी गई समीक्षाएँ।

आचार्य शुक्ल ने तुलसी, सूर, जायसी आदि कवियों पर जो समीक्षाएँ प्रस्तुत कीं, उनसे हिन्दी - आलोचना की भित्ती सुदृढ़ हो गयी। तुलसी की समीक्षा करते हुए शुक्ल जी ने काव्य के अन्तर्बाह्य पक्षों की दृष्टि से उनके काव्य का विवेचन किया। तुलसी की भक्ति-पद्धति लोक धर्म, लोक मंगल, लोक नीति, ज्ञान- भक्ति विवेचना आदि पर भी विचार किया और तुलसी की काव्य- पद्धति, भाषाधिकार, उक्ति वैचित्र्य आदि का भी निरूपण किया है। इस प्रकार तुलसी की उन्होंने सभी प्रकार से आलोचना प्रस्तुत की है। द्विवेदी युगीन नैतिकता और आदर्श के गहन पक्षपाती होने के कारण शुक्लजी को तुलसी सबसे प्रिय कवि और तुलसी का रामचरित मानस सबसे प्रिय काव्य-ग्रन्थ प्रतीत हुआ। मानस के लोक-धर्म के आदर्श की ओर वे सम्पूर्ण हृदय से आकर्षित हुए। यह लोक-धर्म सत् की रक्षा और असत् के दलन में निरत दिखाई देता है। शुक्लजी ने पूरी भावुकता और तन्मयता के साथ मानस की इस विशेषता को उजागर किया है।

शुक्ल जी ने लोकमंगल और आनन्द का निरूपण करने वाले काव्यों को दो भागों में बाँटा है लोक मंगल की साधनावस्था को लेकर चलने वाले काव्य तथा लोक मंगल की सिद्धावस्था को लेकर चलने वाले काव्य। प्रथम वर्ग में वे तुलसी का काव्य रखते हैं तथा द्वितीय में सूर के काव्यों को स्थान देते हैं। इसमें गर्जन- तर्जन, विप्लव तेज आदि नहीं हैं अपितु एक मधुरिमा और कोमलता आदि से अन्त तक व्याप्त है। यद्यपि शुक्ल जी एक उच्च कोटि के सहृदय समीक्षक और काव्य-मर्मज्ञ थे, किन्तु द्विवेदीयुगीन नैतिकता से प्रभावित होने के कारण उन्हें सूर की माधुर्यपूर्ण उक्तियों में वह सौन्दर्य नहीं दिखा, जो तुलसी के लोकधर्म निरूपण में दिखाई दिया। फलस्वरूप वे सूर के प्रति आवश्यकता से अधिक कठोर हो गये।

विस्तार की दृष्टि से शुक्लजी की तीनों भूमिकाओं में 'जायसी ग्रन्थावली' की भूमिका सबसे बड़ी है। इसमें उन्होंने कवि का जीवन परिचय या रचना के सामान्य गुण-दोष निरूपित करके अपने आलोचक कर्म की इतिश्री नहीं समझ ली है, अपितु कवि की अंतः प्रवृत्तियों का उद्घाटन करते हुए कृति का सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत किया है। यद्यपि आज जायसी का अध्ययन, दर्शन और सिद्धांत आदि अनेक दिशाओं में बहुत आगे बढ़ गया है, किन्तु पद्मावत के काव्य-सौन्दर्य के सम्बन्ध में हम शुक्ल जी द्वारा स्थापित मान्यताओं से तनिक भी आगे नहीं बढ़ सके। इससे उनके विवेचन की पूर्णता प्रकट हो जाती है।

आचार्य शुक्ल ने छायावाद, रहस्यवाद आदि काव्यधाराओं पर भी अपनी समीक्षा प्रस्तुत की है। अनेक आलोचकों का कथन है कि उन्होंने इन काव्यधाराओं का खण्डन किया है और इनके प्रति यथोचित सहानुभूति नहीं दिखाई है, परन्तु वास्तव में उन्होंने इन काव्यधाराओं की हर बात को बुरा नहीं कहा। जहाँ उन्हें अच्छाई दिखाई दी है वहाँ सराहना भी की है। छायावाद की लाक्षणिकता की उन्होंने प्रशंसा की है। वस्तुतः शुक्ल जी इन काव्यधाराओं की कतिपय प्रवृत्तियों के प्रति असहिष्णु तो थे परन्तु हठधर्मिता और असहृदयता उनमें न थी। समय के साथ जब उन दोषों में परिमार्जन होता गया, शुक्ल जी इन काव्यधाराओं के प्रति सहिष्णु बनते गये।

आचार्य शुक्ल की समीक्षा पद्धति का मूल्यांकन - आचार्य शुक्ल की सैद्धांतिक और व्यवहारिक समीक्षा का एक सम्यक विवेचन करने के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि वे अन्यतम कोटि के समीक्षक थे। डॉ. रामलाल सिंह के शब्दों में, "उन्होंने हिन्दी समीक्षा का स्वतन्त्र तथा नव्य दर्शन उपस्थित किया।' डॉ. मनोहरलाल गौड़ का कथन है कि सबसे महत्व की बात यह है कि उन्होंने बहुत पढ़ा है, पढ़े को समझा है, समझे को पचाया है, और पचाने हुए को ही लिखा है। शुक्ल जी की लेखनी से ऐसी कोई बात नहीं निकली, जिस पर उन्होंने गहराई से विचार नहीं किया है।

आचार्य शुक्ल ने आलोचना के क्षेत्र में अनेक मौलिक उद्भावनाएँ की। उन्होंने साहित्य के मानदण्ड का आधार मनोरंजन अथवा चमत्कार के स्थान पर जीवन को बनाया। इसी आधार पर उन्होंने तुलसी के साहित्य की महत्ता प्रतिपादित की, क्योंकि वह जीवन की व्यवस्था प्रस्तुत करता है और लोक-धर्म अपनी सम्पूर्णता के साथ उसमें अभिव्यक्त हुआ।

शुक्ल जी ने आलोचना के लिए शक्ति, शील और सौन्दर्य का उच्च आदर्श खोज निकाला और इसी के आधार पर सूर, तुलसी, जायसी आदि कवियों की समीक्षाएँ प्रस्तुत की। उन्होंने भारतीय रसवाद की गम्भीर एवं व्यापक समीक्षा प्रस्तुत कर उसे भारतीय समीक्षा- शास्त्र का आदर्श बनाया। प्राचीन रसवादी धारणा को परिवर्तित और परिवर्द्धित कर उन्होंने उसे मौलिक रूप प्रदान किया। उन्होंने काव्य में रस-दशा के साथ-साथ शील दशा की भी अवतारणा की। यह उनकी मौलिक उद्भावना थी। उनके अनुसार इस दशा में पहुँचने पर हम काव्य की उस भूमि पर पहुँच जाते हैं जहाँ मनोविकार अपने क्षणिक रूप में न दिखाई देकर जीवन-व्यापी रूप में दिखाई देते हैं।

आचार्य शुक्ल ने साहित्य के दार्शनिक आधार को संपुष्ट बनाया। उन्होंने पाश्चात्य समीक्षकों की काव्य को कला मानने की धारणा का खण्डन किया और उसे सत्यानुशीलन की साधना बताया। उनका कहना था, कविता जीवन और जगत के मार्मिक पक्ष को मनुष्य के सामने इस प्रकार लाती है कि मनुष्य स्वार्थ के संकुचित घेरे से बाहर निकल भूमि के साथ एकाकार हो जाता है।

आचार्य शुक्ल की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वे अपने सिद्धांतों के सम्बन्ध में पूर्ण दृढ़ थे। साहित्य सम्बन्धी जो सिद्धांत और आदर्श उन्होंने एक बार निश्चित कर लिए, उनका उन्होंने कठोरता से पालन किया। चूँकि ये मान्यताएँ उन्होंने गहरा अध्ययन और सूक्ष्मचिंतन के बाद निर्धारित की थी, अतः वे स्वयं उनके सम्बन्ध में दृढ़ और अपरिवर्तनशील बने रहे। अपनी शक्ति और क्षमता के बल पर उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार की आलोचनाएँ प्रस्तुत की। अन्य आलोचक प्रायः या तो सिद्धांत निर्धारित करते हैं या फिर व्यावहारिक आलोचनाएँ लिखते हैं। शुक्ल जी ने अपनी साधारण सामर्थ्य के बल पर दोनों ही क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।

आचार्य शुक्ल की आलोचना शैली में कहीं भी रूक्षता नहीं है। कारण यह है कि उनमें हृदय और बुद्धि का पूर्ण समन्वय था। किसी भी विषय की आलोचना करते समय उन्होंने बुद्धि का उपयोग तो किया है, परन्तु हृदय को बराबर साथ रखा है। विषय का स्पष्ट विवेचन उनकी एक अन्य विशेषता है। किसी कवि के जीवन परिचय का अभाव होने पर उन्होंने उसकी कृतियों द्वारा ही उसके स्वभाव और प्रकृति आदि की झलक प्राप्त की। व्यावहारिक आलोचना के लिए उन्होंने सूर, तुलसी और जायसी जैसे उच्चतर कवियों को चुना और अपनी संवेध काव्य भावना के बल पर उनकी समीक्षा प्रस्तुत की। परन्तु इसके साथ-साथ हमें स्मरण रखना चाहिए कि उन्होंने साहित्य का इतिहास भी लिखा है और यहाँ उनको सभी कवियों से जुड़ना पड़ा है। पर यहाँ भी उन्होंने अपनी समीक्षा विषयक सिद्धांतों का सफल प्रयोग किया। कहीं-कहीं उनकी व्यक्तिगत रुचियाँ भी प्रकट हो गयी हैं। यथा- उन्होंने प्रबन्ध रचना को मुक्तक काव्य पर प्रधानता दी है, या लोक मंगल को लोकरंजन से श्रेष्ठ माना है। परन्तु अधिकांशतः वे तटस्थ ही रहे। यह तटस्थता आलोचक में होनी चाहिए। शुक्ल जी एक उच्चकोटि के काव्य-मर्मज्ञ और सहृदय- समालोचक थे। आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी ने उनके आलोचक रूप के महत्व को स्वीकार करते हुए लिखा है कि- "शुक्ल जी की सबसे बड़ी विशेषता है कि समीक्षा के सब अंगों का समान रूप से विन्यास ! अन्य प्रान्तीय भाषाओं में समीक्षा के किसी एक अंग को लेकर शुक्ल जी की टक्कर लेने वाले अथवा उनसे विशेषता रखने वाले समीक्षक मिल सकते हैं, पर सब अंगों के समान विकास उनसा कोई कर सका है, मैं नहीं जानता। वे आलोचक, समीक्षक मात्र नहीं थे, सच्चे अर्थों में साहित्य के आचार्य थे।

शुक्ल जी ने यूरोप के साहित्य-क्षेत्रों में जल्दी-जल्दी होने वाले परिवर्तनों पर अपनी आस्था नहीं रखी। उन्होंने इसे बदलते फैशन जैसी चीज बताया। न वे विभिन्न वादों की उलझन में पड़े और न सामाजिक या राजनैतिक क्षेत्रों की विचारधाराओं से जुड़े। परन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि अपने युग के प्रति उनमें कोई जागरूकता न थी उन्होंने जिस लोक धर्म के सिद्धांत का बार-बार उल्लेख किया है वह मध्यवर्ग की उन आदर्शवादी धारणाओं से संयुक्त है जो बीसवीं सदी के प्रथम चरण की विशेषता थी।

शुक्ल जी ने गम्भीर समीक्षाएँ प्रस्तुत की, परंतु यत्र-तत्र उनमें हास्य-व्यंग्य पुट भी बनाये रखा। विषय के गम्भीर विवेचन के पश्चात् व्यंग्य और हास्य ही यह मीठी सी चोट पाठक का मन हल्का कर देती है और वह पुनः गम्भीर अध्ययन में लीन होने की सामर्थ्य पा जाता है।

शुक्ल जी का मत यह भी था कि साहित्य की समीक्षा किसी एक पहलू पर दृष्टि रखकर न की जानी चाहिए वरन् सर्वांगीण होनी चाहिए। आज समीक्षा के क्षेत्र में किसी एक कोने को पकड़कर ही खींचते चलने की जो प्रवृत्ति चल रही है उससे भ्रम फैलता है और कोई लाभ नहीं होता। शुक्ल जी ने इस प्रवृत्ति को साहित्यिक कनकौआ उड़ान कहा है।

शुक्ल जी ने आलोचना क्षेत्र में अपनी अमिट छाप अंकित की। डॉ. नागेन्द्र ने लिखा है, "आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के विषय में कदाचित् यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि उनके समान मेधावी आलोचक किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में नहीं हैं।' न केवल आलोचना अपितु निबन्ध, कविता, इतिहास, अनुवाद और सम्पादन आदि विविध क्षेत्र में शुक्ल जी की प्रतिभा का आलोचक विकीर्ण हुआ। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सत्य ही लिखा है, "आचार्य शुक्ल उन महिमाशाली लेखकों में हैं जिनकी प्रत्येक पंक्ति आदर के साथ पढ़ी जाती है और भविष्य को प्रभावित करती रहती है। 'आचार्य' शब्द ऐसे ही कर्ता साहित्यकारों के योग्य है। पं. रामचन्द्र शुक्ल सच्चे अर्थों में आचार्य थे।'

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

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